दहेज प्रथा क्या है | दहेज प्रथा पर निबंध | दहेज प्रथा एक अभिशाप | dowry system essay in hindi

दहेज प्रथा क्या है | दहेज प्रथा पर निबंध | दहेज प्रथा एक अभिशाप | dowry system essay in hindi

भूमिका- दहेज-प्रथा हिन्दू समाज के माथे पर कलंक है। आज हमारा सिर जाति-पाति, छुआ-छूत और दहेज जैसी प्रथाओं के कारण लज्जा से झुक जाता है। दहेज प्रथा के पीछे लोभ की प्रवृति है। दहेज का  अर्थ है- विवाह के समय दी जाने वाली वस्तुएँ। यह प्रथा अत्यन्त प्राचीन है परन्तु पहले इस प्रथा का आरम्भ अच्छे उद्देश्य को लेकर था और अब यह एक बुराई बन गई है। इसने पारिवारिक जीवन को उजाड़ कर रख दिया है। यह एक कोढ़ बन गया है। प्राचीन समय में पिता अपनी पुत्री को सामर्थ्य के अनुसार प्रेम और स्वेच्छा से दहेज देता था परन्तु आज पिता को विवश होकर अपने आपको बेचकर लड़के वालों की शर्त माननी पड़ती है। दहेज प्रथा ने भयंकर रूप धारण कर लिया है और समाज को भीतर से खोखला कर दिया है। तीन अक्षरों का यह छोटा सा नाम है- दहेज। परन्तु अब यह एक सामाजिक अभिशाप बन चुका है।

आरम्भ व प्राचीन स्वरूप- दहेज-प्रथा बहुत पुरानी प्रथा है। पहले इसमें कोई जोर जबरदस्ती या विवशता नहीं थी। यह एक अच्छी प्रथा थी। विवाह के बाद पुत्री के लिए पिता का घर पराया हो जाता था पिता की सम्पत्ति में उसका कोई अधिकार नहीं रह जाता था अतः पिता अपना कुछ भाग कन्या को विदाई के समय देता था। प्राचीन काल में दहेज माता-पिता के प्रेम और प्रसन्नता का प्रतीक था जिसे वे अपनी कन्या के विवाह पर उपहार के रूप में देते थे। प्राचीन काव्यों और लोक कथाओं में इस प्रथा का काफी वर्णन मिलता है।

विकृत रूप- समय के साथ-साथ आदमी बदला है। समाज बदला है और दहेज का रूप भी जो आरम्भ में माता-पिता के प्रेम और प्रसन्नता का प्रतीक था- अब एक अनिवार्य शर्त बन गई है। वर पक्ष अपने पुत्र की बोली लगाने लगा है। आज कन्या की श्रेष्ठता, शील, सौन्दर्य और गुणों से नहीं बल्कि उसके माँ बाप के धन से आंकी जाने लगी है। प्रायः विवाह के समय माता-पिता ऋण लेकर अपनी शक्ति से अधिक खर्च करते हैं और इसी ऋण का बोझ उतारने में उनका सारा जीवन व्यतीत हो जाता है। पुत्री का जन्म होते ही घर में मातम छा जाता है। लड़की के माता-पिता उसी दिन से ही चिन्ताग्रस्त हो जाते हैं।

'जब लड़की है जन्म लेती, इक मातम सा छा जाता है

कांसी के थाल बजे क्या, लोहा भी न बजने पाता है।'

समाचार पत्रों में हम रोजाना पढ़ते हैं कि सास ने बहू पर तेल छिड़क कर आग लगा दी, स्टोव फट जाने से विवाहिता की मृत्यु तथा अनेक ऐसी घटनाओं द्वारा विवाहिता दहेज की बलि चढ़ जाती है। इन समाचारों को पढ़कर हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं और हम सोचते हैं, मनुष्य इतना निर्भय और जालिम क्यों है? कन्या सुशील नहीं है और कुरूप है तो भी दहेज के आगे सब ठीक है। वर पक्ष के लोग विवाह से पहले ही दहेज की धन राशि है निश्चित कर लेते हैं। कई बार लड़की अपने माता-पिता को मुसीबत में नहीं देखना चाहती और आत्महत्या कर लेती है।

मुख्य कारण- दहेज कुप्रथा का मुख्य कारण यह है कि आज तक नारी को पुरुष के बराबर नहीं समझा गया। लड़के वाले समझते हैं कि हम लड़की वालों पर एहसान कर रहे हैं। इसका दूसरा कारण यह है कि हमारे समाज में लोग दहेज के लोभी हैं। ये वधू पक्ष पर कुछ शर्तें थोप देते हैं और लड़की वाले अपनी कन्या के सुखी जीवन के लिए उन शर्तों को मान लेते हैं। कुछ लोगों के पास ज्यादा धन होता है वे तो आसानी से दहेज की वस्तुएँ दे देते हैं परन्तु यह रिवाज गरीब लोगों के लिए मुसीबत बन जाता है उन्हें भी वही वस्तुएँ विवश होकर देनी पड़ती हैं चाहे सम्पत्ति बेचनी पड़े या कर्ज लेना पड़े। ऋण लेकर विवाह करने पर कभी-कभी माता-पिता का समस्त जीवन ऋण चुकाने में लग जाता है। दहेज के लोभी व्यक्ति विवाह के अवसर पर मिले दहेज पर ही सन्तुष्ट नहीं होते परन्तु विवाह के बाद भी उनकी माँगे बढ़ती रहती हैं। मारना पीटना, भूख रखना, कटु बातें कहना आदि तरीकों से नव वधू को दहेज लाने के लिए विवश किया जाता है। इतने पर भी जब वे दहेज नहीं लाती तो उसे जिन्दा जला दिया जाता है या उसे त्याग दिया जाता है। ऐसी प्रवृत्ति वाले व्यक्ति किसी एक लड़की से शादी करके बहुत सा धन ले लेते हैं, फिर उस लड़की को किसी ना किसी ढंग से मार देते हैं या उसे आत्महत्या करने पर विवश कर देते हैं, इसके बाद दूसरी शादी करके दोबारा दहेज ले लेते हैं।

समस्या का समाधान / उपसंहार - यह दहेज प्रथा तो बिना हाथ-पैर हिलाए धन हड़पने का साधन है। इस प्रथा को रोकने का समुचित उपाय करना चाहिए अन्यथा यह बुराई समाज को पतन की ओर ले जाएगी। सरकार ने दहेज प्रथा के विरुद्ध कानून बना दिया है लेकिन कानून बेचारा क्या करे? जब कोई शिकायत करने वाला ही न हो। लड़की का पिता अपनी इज्जत के डर से शिकायत नहीं करता। कानून लागू करने के लिए समुचित व्यवस्था होनी चाहिए तभी ऐसे राक्षसों को दण्ड दिया जा सकता है। नारी को आर्थिक दृष्टि से अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए। अगर वह चौबीस घण्टे घर में बन्द नहीं रहेगी तो सास-ननद की लड़ाई से बची रहेगी। बहू के नाराज होने पर आय हाथ से निकल जाने का भय भी सास-ननद का मुँह बन्द रखेगा। इस प्रथा को समाप्त करने के लिए युवकों को आगे बढ़ना चाहिए। उन्हें माता-पिता को स्पष्ट शब्दों में कह देना चाहिए कि शादी होगी तो बिना दहेज होगी। दहेज-प्रथा को समाप्त करने के लिए सामाजिक चेतना की आवश्यकता है। सरकार के साथ-साथ समाज सेवा में रुचि रखने वाले इस प्रथा के विरुद्ध जन-जाग्रति पैदा करके इसे रोकने के कड़े उपाय करें, तो इससे छुटकारा पाया जा सकता है। आजकल कुछ महिला संगठन भी बन गए हैं जिनसे इस बुराई को रोकने में मदद मिलेगी।

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