समाज सेवा पर निबंध हिंदी में | Essay On Social Service In hindi - wificlass

समाज सेवा

समान विचारों, सुख-दुखों तथा समान परम्पराओं वाले मनुष्य-समुदाय को समाज कहा जाता है। भले ही इस प्रकार के लोग अलग-अलग स्थानों पर रहते हों, फिर भी एक ही समाज के अंग कहे जाते हैं। विस्तृत अर्थ में समस्त मानव जाति को ही मनुष्य समाज कहा जाता है। मानव की सेवा ही ईश्वर की सेवा है, यही उसकी भक्ति है। अतः समाज सेवा ही ईश्वर की सच्ची सेवा है।


धन सम्पत्ति, मान-प्रतिष्ठा और हर प्रकार के सांसारिक सुख की इच्छा न करते हुए तन, मन, धन से लोगों की सेवा करना और उनकी उन्नति के लिए ही कार्य करना समाज सेवा है। सही शब्दों में संघर्ष की भावना को प्रश्रय देकर मनुष्य के उदात्त गुणों को जगाना ही समाज सेवा है। इस सम्पूर्ण मनुष्य समाज में सुख-दुख सदैव आते-जाते रहते हैं। इसमें कभी हाहाकार की चीत्कार सुनाई पड़ती है तो कभी शांतिपूर्ण जीवन की समरसता । इस संसार में एक ओर शारीरिक, मानसिक तथा आर्थिक कष्ट हैं तो दूसरी ओर सुख समृद्धि के सभी साधन भी विद्यमान हैं। प्रसाद जी ने इस विषमता के सत्य को प्रकट करते हुए लिखा है:


“विषमता की पीड़ा से व्यक्त हो रहा है, स्पंदित विश्व महान् । 

" यही दुःख विकास का सत्य, यही भूमा का मधुमय दान ।।


समाज में फैले दुःख दर्द, कष्ट-वेदना, अभाव, अशिक्षा, अत्याचार को दूर करना ही समाज की सेवा करना है। इस संसार के आरम्भ से लेकर आज तक हजारों लोगों ने समाज की सेवा करते करते अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित कर दिया है। वे बिना किसी लोभ और लालच के समाज सेवा के इस शुभ कार्य में तल्लीन हो गए। हमारे देश में अनेक ऐसे महापुरुष हुए जिन्होंने समाज सेवा के लिए अपना तन, मन, धन सब कुछ अर्पित कर दिया। शंकराचार्य ने समाज के हित के लिए ही भारत के चार कोनों में चार मठों की स्थापना की। भगवान बुद्ध ने समाज को अहिंसा का संदेश दिया, राजा राममोहन राय ने समाज में सती प्रथा का अंत किया तो स्वामी रामतीर्थ, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद ने वैदिक मान्यताओं की स्थापना में अपना सहयोग दिया। महात्मा गाँधी और भीमराव अम्बेडकर ने अछूतोद्धार का पुण्य कार्य किया तो विनोबा भावे ने भूदान और श्रमदान की दिव्य जोत जलाकर समाज की उन्नति के लिए कार्य किया। मदर टेरेसा ने तो अपने जीवन का एक-एक क्षण असहाय और पीडित समाज की सेवा करने में अर्पित कर दिया।


आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर समाज सेवा के लिए अपना सब कुछ अर्पित करने वाले राष्ट्रीय स्वयं संघ, आर्य समाज, सनातन धर्म, ईसाई धर्म, रामकृष्ण परमहंस आश्रम के लाखों प्रचारक निःस्वार्थ भाव से समाज के इस महान् कार्य में लगे हुए हैं। समाज के कल्याण और उसकी उन्नति के लिए कार्य कर रहे हैं।


समाज सेवा अत्यन्त कठिन कार्य है। तुलसीदास ने कहा है कि: “सेवा धरम कठिन जग जाना।' समाज सेवा करने वालों को अपमान, ग्लानि, कटूक्ति, आरोप और लांछन भी मिलते हैं। महर्षि दयानंद ने अपने जीवन में कितना अपमान और कटूक्तियाँ सही लेकिन समाज सेवा के अपने लक्ष्य से जरा भी विचलित नहीं हुए और निरंतर समाज सेवा के महान कार्य में तल्लीन रहे ।


समाज-सेवा करना ही ईश्वर की सच्ची भक्ति करना है। दीन-दुखियों की सेवा करना, लोगों की उन्नति के लिए कार्य करना ही ईश्वर की सच्ची भक्ति है यही जीवन की सार्थकता है। पुराणों में भी कहा गया है कि इस संसार में उसी का जीवन सफल होता है जो सदैव लोगों की उन्नति के लिए कार्य करता है। समाज सेवा - से हृदय शुद्ध होता है, अहंकार नष्ट होता है और मन को शांति मिलती है। समाज सेवा का क्षेत्र भूखे को भोजन देना, अंधे को राह दिखाना, जरूरतमंदों की सहायता करना समाज सेवा के ही लघु रूप हैं । बहुत बड़ा जाति-पाति के भेद भाव को दूर करना, एकता का प्रचार करना, नारी उद्धार के लिए कार्य करना, समाज में फैले अंधविश्वासों को दूर करना, नैतिक आचरण की प्रेरणा देना समाज सेवा के विशाल रूप हैं।


समाज सेवा में श्रद्धा का भाव होना चाहिए। हमें किसी लोभ या निजी स्वार्थ वश नहीं बल्कि सच्चे हृदय से दीन-दुखियों और पीड़ितों की सेवा करनी चाहिए। समाज सेवा करना ईश्वर की सेवा करना है। अतः हमें सदैव समाज की उन्नति के लिए कार्य करना चाहिए।

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