सहशिक्षा
एक ही विद्यालय में और एक ही कक्षा में बालक-बालिकाओं का और युवक-युवतियों का एक साथ शिक्षा ग्रहण करना सहशिक्षा है। आर्य समाज के प्रचार ने स्त्री शिक्षा पर बल दिया, तो वहीं दूसरी ओर अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार ने सहशिक्षा पर बल दिया। जैसे-जैसे भारत में पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव बढ़ता गया वैसे-वैसे सहशिक्षा का विकास भी होता गया । परिणामस्वरूप आज के समाज को लड़के-लड़कियों के एक साथ शिक्षा ग्रहण करने में कोई आपत्ति नहीं होती ।
सहशिक्षा के कई लाभ हैं। जहाँ एक ओर लड़कियों का शर्मिलापन, झिझक, भय, कोमलता, हीनभावना एक सीमा तक दूर हो जाती है, वहीं दूसरी ओर लड़कों की निर्लज्जता, अक्खड़पन पर अंकुश लग जाता है और वह मृदुभाषी, संयमित, शिष्ट आचरण करने वाला बन जाता है। युवक-युवतियों में भावों का यह आदान-प्रदान उनके भावी जीवन की सफलता का कारण बनता है।
सहशिक्षा से शिक्षा व्यवस्था में खर्च की बहुत बचत होती है। सरकार को लड़कियों के लिए अलग स्कूल, अलग कक्षा और अध्यापक पर खर्च करना नहीं पड़ता। प्राथमिक शिक्षा में अध्यापिका की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है। परिवार से निकलकर विद्यालय के नए वातावरण में प्रवेश करने वाले शिशु के लिए अध्यापिका माता और शिक्षक दोनों का कर्त्तव्य निभाती है। यदि लड़के और लड़कियों के लिए अलग शिक्षा की व्यवस्था की जाए तो पुरुष अध्यापकों के पढ़ाने में न तो वह सहृदयता होगी और न ही बालक की प्रवृत्ति को समझने की योग्यता । सहशिक्षा प्रतिस्पर्धा की भावना को भी बढ़ावा देती है। लड़के-लड़कियों से और लड़की-लड़कों से आगे बढ़ने की चेष्टा करती हैं। यह प्रतिस्पर्धा उनके अध्ययन, चिन्तन और मनन को अत्यधिक शक्तिशाली बनाती है।
जैसे फूल के साथ काँटे होते हैं। उसी प्रकार जहाँ एक ओर सहशिक्षा में गुण विद्यमान हैं, वहीं दूसरी • ओर दोष भी विद्यमान हैं। आज के दोषपूर्ण वातावरण में सहशिक्षा के छात्र-छात्राओं में भाई-बहन की कम और प्रेमी-प्रेमिकाओं की भावना अधिक है। सहपाठियों का विपरीत आकर्षण उन्हें एक-दूसरे के प्रति आकर्षित करता है और अन्ततः वे वासना का शिकार हो जाते हैं। प्रेम और वासना की भूख कभी शांत नहीं होती और सहशिक्षा इस भूख को और बढ़ा देती है। ऐसी स्थिति में दृढ़ चरित्र वाले ही अध्ययन कर पाते हैं। अन्यथा पढ़ना-लिखना तो दूर की बात है ऐसी स्थिति में विद्यार्थियों का चारित्रिक पतन भी हो जाता है।
सहशिक्षा के कारण लड़के-लड़कियों का पढ़ाई में मन नहीं लगता उनका मन अशांत रहता है। लड़कियाँ लड़कों से दबी दबी रहती हैं। वे घुटन भरे माहौल में जीती हैं। शर्मीले लड़के भी लड़कियों को देखकर घबराते हैं। ऐसी स्थिति में उनका मन एकाग्र नहीं हो पाता। पाठ्यक्रमों में कभी-कभी कुछ ऐसे अश्लील प्रसंग आ जाते हैं कि लड़के और लड़कियों को एक साथ समझाना अध्यापक के लिए अत्यन्त कठिन हो जाता है। ऐसी स्थिति में अध्यापक उन प्रसंगों को प्रायः छोड़ देता है। उन्हें नहीं पढ़ाता और यदि पढ़ाता भी है तो उनका सही अर्थ नहीं बता पाता । इस प्रकार सहशिक्षा शिक्षा के मार्ग में बाधक भी है
जहाँ तक भारतीय समाज की रूढ़िवादिता की बात है, आज का भारतीय कितना भी पढ़ा-लिखा और आर्थिक दृष्टि से संपन्न क्यों न हो पाश्चात्य संस्कृति के प्रति उसका आकर्षण स्वाभाविक है। भारतीय संस्कृति उसे पुरानी और रूढ़िवादी लगने लगती है। पाश्चात्य सभ्यता जहाँ एक ओर जीवन में चमक-दमक लाएगी वहाँ विलास और वासना के मापदंड अपने आप बदल जाएंगे। तब सहशिक्षा कहीं से भी भारतीयता के विरुद्ध नहीं होगी।।
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